* बच्चे-बच्चियाँ माता-पिता के माथे पर कुंकुम का तिलक करें ।
* तत्पश्चात् माता-पिता के सिर पर पुष्प अर्पण करें तथा फूलमाला पहनायें ।
* माता-पिता भी बच्चे-बच्चियों के माथे पर तिलक करें एवं सिर पर पुष्प रखें । फिर अपने गले की फूलमाला बच्चों को पहनायें ।
* बच्चे-बच्चियाँ थाली में दीपक जलाकर माता-पिता की आरती करें और अपने माता-पिता एवं गुरु में ईश्वरीय भाव जगाते हुए उनकी सेवा करने का दृढ संकल्प करें ।
* बच्चे-बच्चियाँ अपने माता-पिता के एवं माता-पिता बच्चों के सिर पर अक्षत एवं पुष्पों की वर्षा करें ।
* तत्पश्चात् बच्चे-बच्चियाँ अपने माता-पिता की सात बार परिक्रमा करें ।
* चित्र-अनुसार बच्चे-बच्चियाँ अपने माता-पिता को झुककर विधिवत् प्रणाम करें तथा माता-पिता अपनी संतान को प्रेम से सहलायें । संतान अपने माता-पिता के गले लगे । बेटे-बेटियाँ माता-पिता में ईश्वरीय अंश देखें और माता-पिता बच्चों में ईश्वरीय अंश देखें ।
* इस दिन बच्चे-बच्चियाँ पवित्र संकल्प करें : “मैं अपने माता-पिता व गुरुजनों का आदर करूँगा/करूँगी । मेरे जीवन को महानता के रास्ते ले जानेवाली उनकी आज्ञाओं का पालन करना मेरा कर्तव्य है और मैं उसे अवश्य पूरा करूँगा/करूँगी ।”
* इस समय माता-पिता अपने बच्चों पर स्नेहमय आशीष बरसायें एवं उनके मंगलमय जीवन के लिए इस प्रकार शुभ संकल्प करें : “तुम्हारे जीवन में उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति व पराक्रम की वृद्धि हो । तुम्हारा जीवन माता-पिता एवं गुरु की भक्ति से महक उठे । तुम्हारे कार्यों में कुशलता आये । तुम त्रिलोचन बनो – तुम्हारी बाहर की आँख के साथ भीतरी विवेक की कल्याणकारी आँख जागृत हो । तुम पुरुषार्थी बनो और हर क्षेत्र में सफलता तुम्हारे चरण चूमे ।”
* बच्चे-बच्चियाँ माता-पिता को ‘मधुर प्रसाद’ खिलायें एवं माता-पिता अपने बच्चों को प्रसाद खिलायें ।
* बालक गणेशजी की पृथ्वी परिक्रमा, भक्त पुंडलिक की मातृ-पितृ भक्ति, श्रवण कुमार की मातृ-पितृ भक्ति – इन कथाओं का पठन करें अथवा कोई एक व्यक्ति कथा सुनाये और अन्य लोग श्रवण करें ।
* माता-पिता ‘बाल संस्कार’, ‘दिव्य प्रेरणा-प्रकाश’, ‘तू गुलाब होकर महक’, ‘मधुर व्यवहार’ – इन पुस्तकों को अपनी क्षमतानुरूप बाँटें-बँटवायें तथा प्रतिदिन थोडा-थोडा स्वयं पढने का व बच्चों से पढाने का संकल्प लें ।
अपनी भारतीय संस्कृति बालकों को छोटी उम्र में ही बड़ी ऊँचाईयों पर ले जाना चाहती है। इसमें सरल छोटे-छोटे सूत्रों द्वारा ऊँचा, कल्याणकारी ज्ञान बच्चों के हृदय में बैठाने की सुन्दर व्यवस्था है।
मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। माता-पिता एवं गुरू हमारे हितैषी है, अतः हम उनका आदर तो करें ही, साथ ही साथ उनमें भगवान के दर्शन कर उन्हें प्रणाम करें, उनका पूजन करें। आज्ञापालन के लिए आदरभाव पर्याप्त है परन्तु उसमें प्रेम की मिठास लाने के लिए पूज्यभाव आवश्यक है। पूज्यभाव से आज्ञापालन बंधनरूप न बनकर पूजारूप पवित्र, रसमय एवं सहज कर्म हो जाएगा।
पानी को ऊपर चढ़ाना हो तो बल लगाना पड़ता है। लिफ्ट से कुछ ऊपर ले जाना हो तो ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है। पानी को भाप बनकर ऊपर उठना हो तो ताप सहना पड़ता है। गुल्ली को ऊपर उठने के लिए डंडा सहना पड़ता है। परन्तु प्यारे विद्यार्थियो! कैसी अनोखी है अपनी भारतीय सनातन संस्कृति कि जिसके ऋषियों महापुरूषों ने इस सूत्र द्वारा जीवन उन्नति को एक सहज, आनंददायक खेल बना दिया।
इस सूत्र को जिन्होंने भी अपना बना लिया वे खुद आदरणीय बन गये, पूजनीय बन गये। भगवान श्रीरामजी ने माता-पिता व गुरू को देव मानकर उनके आदर पूजन की ऐसी मर्यादा स्थापित की कि आज भी मर्यादापुरूषोत्तम श्रीरामजी की जय कह कर उनकी यशोगाथा गायी जाती है। भगवान श्री कृष्ण ने नंदनंदन, यशोदानंदन बनकर नंद-घर में आनंद की वर्षा की, उनकी प्रसन्नता प्राप्त की तथा गुरू सांदीपनी के आश्रम में रहकर उनकी खूब प्रेम एवं निष्ठापूर्वक सेवा की। उन्होंने युधिष्ठिर महाराज के राजसूय यज्ञ में उपस्थित गुरूजनों, संत-महापुरूषों एवं ब्राह्मणों के चरण पखारने की सेवा भी अपने जिम्मे ली थी। उनकी ऐसी कर्म-कुशलता ने उन्हें कर्मयोगी भगवान श्री कृष्ण के रूप में जन-जन के दिलों में पूजनीय स्थान दिला दिया। मातृ-पितृ एवं गुरू भक्ति की पावन माला में भगवान गणेशजी, पितामह भीष्म, श्रवणकुमार, पुण्डलिक, आरूणि, उपमन्यु, तोटकाचार्य आदि कई सुरभित पुष्प हैं।